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ग़ज़ल
मिरी ज़ीस्त पर मसर्रत कभी थी न है न होगी
कोई बेहतरी की सूरत कभी थी न है न होगी
पीर नसीरुद्दीन शाह नसीर
ग़ज़ल
रूदाद-ए-मोहब्बत क्या कहिए कुछ याद रही कुछ भूल गए
दो दिन की मसर्रत क्या कहिए कुछ याद रही कुछ भूल गए
साग़र सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
सबा अफ़ग़ानी
ग़ज़ल
हंगामा-ए-ग़म से तंग आ कर इज़हार-ए-मसर्रत कर बैठे
मशहूर थी अपनी ज़िंदा-दिली दानिस्ता शरारत कर बैठे
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
मिरे नाशाद रहने से अगर तुझ को मसर्रत है
तो मैं नाशाद ही अच्छा मुझे नाशाद रहने दे
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
वो अपने हुस्न की मस्ती से हैं मजबूर-ए-पैदाई
मिरी आँखों की बीनाई में हैं असबाब-ए-मस्तूरी
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
हिज्र की शब को अगर काटे तो फिर है रोज़-ए-वस्ल
नीश के पर्दे में देखा नोश भी मस्तूर है