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ग़ज़ल
गुमाँ होता है 'शाहिद' रेडियो पर सुन के मौसीक़ी
कि पक्के राग और नमकीं ग़रारे एक जैसे हैं
सरफ़राज़ शाहिद
ग़ज़ल
पाज़ेब में कैसी खनक उतरा है कानों में शहद
किस की ये मौसीक़ी है जिस में सुर हमारा मिल गया
दिव्या जैन
ग़ज़ल
क़ैसर क़लंदर
ग़ज़ल
फ़न्न-ए-मौसीक़ी से वाबस्ता है अपनी शायरी
हम ग़ज़ल पढ़ते हैं ऐ 'नग़्मा' हुनर के साथ-साथ
नग़मा ख़ैराबादी
ग़ज़ल
एक लहन-ए-मुज़्तरिब है मेरी मौसीक़ी नहीं
मेरे नग़्मों में असर है शेवन-ए-दिल-गीर का
नज़ीर हुसैन सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
मग़रिबी शोर-शराबे हैं अंधेरे 'दाएम'
अहल-ए-मौसीक़ी है संगीत का जुगनू तू है