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ग़ज़ल
'आतिश' सुनी है अहल-ए-सियासत की गुफ़्तुगू
सच्चाइयों में मिर्च मसाले बहुत मिले
आतिश रज़ा सेंजूपुरी
ग़ज़ल
मैं अक्सर मिर्च सालन में ज़ियादा डाल देती हूँ
किसी सूरत तो ज़ाहिर हो मिरी रंजिश मिरा ग़ुस्सा
शाज़िया नियाज़ी
ग़ज़ल
नूह नारवी
ग़ज़ल
उसे अंजुमन मुबारक मुझे फ़िक्र-ओ-फ़न मुबारक
यही मेरा तख़्त-ए-ज़र्रीं यहीं मेरी मिर्ग-छाला
कलीम आजिज़
ग़ज़ल
हिज्र की मठ में तसव्वुर उस ग़ज़ाली चश्म का
इश्क़ के बैरागियों को मिर्ग-छाला हो गया
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
ख़्वाब में भी है तसव्वुर शोख़-चश्मों का हमें
बिस्तर-ए-आराम अपना मिर्ग-छाला हो गया
मीर शम्सुद्दीन फ़ैज़
ग़ज़ल
नश्तरी लफ़्ज़ों का लहजा मरहमी रक्खा गया
ज़ख़्म पर मिर्ची से पहले थोड़ा घी रक्खा गया