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ग़ज़ल
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
रहता हूँ किस ख़याल में 'नायाब' इन दिनों
क्या क्या मैं सोचता हूँ मुझे कुछ नहीं पता
जहाँगीर नायाब
ग़ज़ल
मैं बहर-ए-फ़िक्र में हूँ ग़र्क़ इस लिए 'नायाब'
गुहर मुझे भी कोई ज़ेर-ए-आब मिल जाए
जहाँगीर नायाब
ग़ज़ल
सब अपनी ज़ात में गुम हैं ये सोच कर 'नायाब'
पराए दर्द को क्यूँ दर्द-ए-सर बनाया जाए
जहाँगीर नायाब
ग़ज़ल
सोचता हूँ ऊला मिसरा जब कभी 'नायाब' मैं
ख़ुद को लिखवाता है बढ़ कर मिस्रा-ए-सानी मुझे
जहाँगीर नायाब
ग़ज़ल
किस को ये मालूम ऐ 'नायाब' निस्बत किस की है
मेरे हर नक़्श-ए-क़दम को मो'तबर करती हुई