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ग़ज़ल
वस्ल ओ फ़स्ल की हर मंज़िल में शामिल इक मजबूरी थी
तुझ से मिलते तो क्या मिलते ख़ुद से भी महजूरी थी
सलीम अहमद
ग़ज़ल
किस तरह ज़िंदा रहेंगे हम तुम्हारे शहर में
हर तरफ़ बिखरे हुए हैं माह-पारे शहर में
सय्यद अहमद शमीम
ग़ज़ल
ग़ुरूब-ए-मेहर का मातम है गुलिस्तानों में
नसीम-ए-सुब्ह भी शामिल है नौहा-ख़्वानों में
रईस अमरोहवी
ग़ज़ल
तू बिगड़ता भी है ख़ास अपने ही अंदाज़ के साथ
फूल खिलते हैं तिरे शोला-ए-आवाज़ के साथ