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ग़ज़ल
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
मेरे अज्दाद ने सौंपी थी जो मुझ को 'रज़्मी'
नस्ल-ए-नौ को वो क़बा दे के चला जाऊँगा
मुज़फ़्फ़र रज़्मी
ग़ज़ल
नस्ल-ए-आदम रफ़्ता रफ़्ता ख़ुद को कर लेगी तबाह
इतनी सख़्ती से क़यामत पेश आएगी न पूछ
अभिनंदन पांडे
ग़ज़ल
इक दस्त-ए-दुआ की नर्मी से इक चश्म-ए-तलब की सुर्ख़ी तक
अहवाल बराबर होने में इक नस्ल की वहशत जागी है