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ग़ज़ल
हम बाँसुरी पर मौत की गाते रहे नग़्मा तिरा
ऐ ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी रुत्बा रहे बाला तिरा
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
ग़ज़ल
ख़ुद अपना अक्स हूँ कि किसी की सदा हूँ मैं
यूँ शहर ता-ब-शहर जो बिखरा हुआ हूँ मैं
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
ग़ज़ल
हर ख़ार-ओ-ख़स से वज़्अ निभाते रहे हैं हम
यूँ ज़िंदगी की आग जलाते रहे हैं हम
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
ग़ज़ल
हमें भी क्यूँ न हो दा'वा कि हम भी यकता हैं
हमारे ख़ून के प्यासे जब अहल-ए-दुनिया हैं
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
ग़ज़ल
बहुत रौशन हम अपना नय्यर-ए-तक़दीर देखेंगे
जब आग़ोश-ए-तसव्वुर में तिरी तस्वीर देखेंगे
रहमत इलाही बर्क़ आज़मी
ग़ज़ल
नाला-ए-शबाना भी आह-ए-सुब्ह-गाही भी
क्या हयात-सामाँ है ग़म की बे-पनाही भी
मंशाउर्रहमान ख़ाँ मंशा
ग़ज़ल
रूह-ए-ज़माँ मकाँ मिले राज़-ए-अयाँ निहाँ मिले
कब से हूँ गर्म-ए-जुस्तुजू मंज़िल-ए-कुन-फ़काँ मिले
ख़लील-उर-रहमान राज़
ग़ज़ल
मेहर-ओ-माह-ओ-अंजुम का कुछ निशाँ नहीं मिलता
उड़ रहा हूँ बरसों से आसमाँ नहीं मिलता