aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
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यार से हो भला रक़ीबों काऐ 'सख़ी' बस यही बुराई है
जिस को कहते हैं लोग शहर कड़ाऐ 'सख़ी' है वही वतन अपना
ऐ 'सख़ी' यार ने दिखाई कमरशब जो पूछा अदम के क्या मअनी
फिर गई दूर से दिखा के झलकहिज्र में ऐ 'सख़ी' क़ज़ा है शोख़
ऐ 'सख़ी' आज तो कुछ ख़ैर नहींवो कमर हो के ख़फ़ा बाँधते हैं
ऐ 'सख़ी' फिरती है किस ख़ाल की शक्लसामने आँख के बिच्छू की तरह
ऐ 'सख़ी' ख़ूब ग़ज़ल तू ने कहीसुन के तब्-ए-शोअरा लोट गई
हो सकेगा न वस्फ़-ए-सेब-ए-ज़क़नऐ 'सख़ी' है ये बे-हिसाब लज़ीज़
नक़्द-ए-दिल देता हूँ तो कहते हैंवाह ऐसा 'सख़ी' है तू कब का
क्या आई है कुछ ख़बर 'सख़ी' कीघर घर है मलाल आज कैसा
हम-राह हो परवरिश-ए-अली भीयाँ से जो कर्बला 'सख़ी' जाए
चश्म-ए-तर रोने पर है आमादाऔर सूखी सुनाइए साहब
आया जो 'सख़ी' मह-ए-मोहर्रमहम बज़्म में अश्क-बार आए
दम-ए-यार ता-नज़'अ भर लीजिए'सख़ी' ज़िंदगी तक तो मर लीजिए
दिल उसे दे दिया 'सख़ी' ही तो हैमर्हबा परवरिश-ए-अली ही तो है
बोला वो गुल जो सुनी आह 'सख़ी'ऐसी आवाज़-ए-अनादिल तो नहीं
नक़्द-ए-दिल इश्क़ में देते हैं 'सख़ी'ऐ सख़ावत इसे क्या कहते हैं
है क़द्र-ए-सुख़न 'सख़ी' को हासिलयाँ के हर पीर और जवाँ से
बाग़ में झूला डाल के झूले सखी सहेली संगजब परदेसी की याद आए हो मनवा बेचैन
ऐ सखी तेज़ धूप वो और मैंऔर घने साए पेड़ जामुन के
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