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ग़ज़ल
रात भी काली चादर ओढ़े आ पहुँची है ज़ीने में
मेहंदी लगाए बैठी सोचे लट उलझी सुलझाए कौन
किश्वर नाहीद
ग़ज़ल
शहर-ए-ख़िज़ाँ है ज़र्दी ओढ़े खड़े हैं पेड़
मंज़र मंज़र नज़र चुभोने वाला मैं
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ज़ल
ख़्वाब अधूरे रह जाते हैं नींद मुकम्मल होने से
आधे जागे आधे सोए ग़फ़लत भर हुश्यारी की