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ग़ज़ल
दबी आवाज़ में करती थी कल शिकवे ज़मीं मुझ से
कि ज़ुल्म ओ जौर का ये बोझ उठ सकता नहीं मुझ से
अली जवाद ज़ैदी
ग़ज़ल
कितने दिल टूटे हैं दुनिया का ख़बर होने तक
कितने सर फूटे हैं दीवार में दर होने तक
अली जवाद ज़ैदी
ग़ज़ल
ऐसी तन्हाई है अपने से भी घबराता हूँ मैं
जल रही हैं याद की शमएँ बुझा जाता हूँ मैं
अली जवाद ज़ैदी
ग़ज़ल
ग़ैर पूछें भी तो हम क्या अपना अफ़्साना कहें
अब तो हम वो हैं जिसे अपने भी बेगाना कहें
अली जवाद ज़ैदी
ग़ज़ल
नींद आ गई थी मंज़िल-ए-इरफ़ाँ से गुज़र के
चौंके हैं हम अब सरहद-ए-इसयाँ से गुज़र के