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ग़ज़ल
मैं समझा था मेरे सर और ज़ख़्म की निस्बत पुर-मा'नी है
और कोई था जिस की ख़ातिर बच्चों ने पत्थर फेंका था
बिमल कृष्ण अश्क
ग़ज़ल
तिरी उम्मीद-ए-वस्ल-ए-हूर है इक ज़ोहद पर मब्नी
मगर वाइ'ज़ मुझे हर शेवा-ए-रिंदाना आता है
मानी जायसी
ग़ज़ल
पुर-सोज़ तरन्नुम में क्या शम्अ' ग़ज़ल-ख़्वाँ है
लौ झूमती जाती है परवाना भी रक़्साँ है