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ग़ज़ल
कोई मक़्तल में न पहुँचा कौन ज़ालिम था जिसे
तेग़-ए-क़ातिल से ज़ियादा अपना सर अच्छा लगा
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
ऐ दोस्त मैं ख़ामोश किसी डर से नहीं था
क़ाइल ही तिरी बात का अंदर से नहीं था
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ज़ल
ज़ख़्म-ए-सर के दीवाने ज़ख़्म-ए-दिल का क़ाइल हो
ज़िंदगी सँवरती है दिल पे चोट खाने से
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
मैं उस की नज़रों का कुछ इस लिए भी हूँ क़ाइल
वो जिस को चाहे उसे देखना सिखाता है