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ग़ज़ल
बदनामी से डरते हो अबस इश्क़ में ऐ 'बर्क़'
कब तक बशर इस बात का चर्चा न करेंगे
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
ग़ज़ल
जो तुम शिकवों से डरते हो मुझी पर अब जफ़ा करना
रक़ीबों की तरह मुझ को नहीं आता गिला करना
रियाज़ हसन खाँ ख़याल
ग़ज़ल
नज़र-बाज़ी से डरते हो तो मेरे दिल में आ बैठो
कि इस पर्दे से बेहतर और पर्दा हो नहीं सकता