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ग़ज़ल
'इश्क़ की लौ से फ़रिश्तों के भी पर जलते हैं
रश्क-ए-ख़ुर्शीद-ए-क़यामत ये शरारा निकला
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
ताक़त-ए-गर्मी-ए-ख़ुर्शीद-ए-क़यामत है किसे
ताब की दाग़-ए-जिगर से न फ़ुग़ाँ कीजिएगा
अब्दुल रहमान एहसान देहलवी
ग़ज़ल
गर्म-बाज़ारी-ए-ख़ुर्शीद-ए-क़यामत हुई सर्द
हश्र में दाग़-ए-मोहब्बत मिरा चमका कैसा
शाह अकबर दानापुरी
ग़ज़ल
सर्द अल्फ़ाज़ को बख़्शी है हरारत किस ने
रश्क-ए-'ख़ुर्शीद' है वो उस का सुख़न आग है आग
खुर्शीद अकबर
ग़ज़ल
वो ज़र्रा हूँ कि ख़ुर्शीद-ए-क़यामत भी न चमकाए
वो क़तरा हूँ समुंदर से भी दरिया हो नहीं सकता
मीर अली औसत रशक
ग़ज़ल
क्या दिलकशी है अंजुम-ओ-ख़ुर्शीद-ओ-माह में
ऐसे न जाने कितने हैं इस जल्वा-गाह में
कैफ़ मुरादाबादी
ग़ज़ल
तू ही संग-ए-मील है अपने लिए सुल्तान-'रश्क'
अपने ही रस्ते में जो हाइल है वो पत्थर भी तू
सुलतान रशक
ग़ज़ल
खो चुका है उस को जब तो ख़ुद ही ऐ सुल्तान-'रश्क'
अब धड़कता है दिल-ए-बे-मुद्दआ किस के लिए
सुलतान रशक
ग़ज़ल
अपने ख़द-ओ-ख़ाल देखूँ मैं भी ऐ सुल्तान-'रश्क'
मेरी आँखों से मगर ऐ ख़्वाब के मंज़र निकल