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ग़ज़ल
यहाँ तक तो निभाया मैं ने तर्क-ए-मय-परस्ती को
कि पीने को उठा ली और लीं अंगड़ाइयाँ रख दी
साइल देहलवी
ग़ज़ल
साइल देहलवी
ग़ज़ल
सोज़-ए-'मानी' का ज़माने में है किस को एहसास
आज फिर दर्द मिरे पहलू में बेकार उठा
सुलैमान अहमद मानी
ग़ज़ल
लब पे ऐश-ए-अहद-ए-माज़ी का है अफ़साना हनूज़
जा चुकी है फ़स्ल-ए-गुल और मैं हूँ दीवाना हनूज़