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ग़ज़ल
दिल क़स्र-ए-शहंशह है वो शोख़ उस में शहंशाह
अर्सा ये दो आलम का जिलौ ख़ाना है उस का
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
मुक़द्दर में तो लिक्खी है गदाई कू-ए-जानाँ की
अगर 'अफ़सर' शहंशाह-ए-ज़मन होता तो क्या होता