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ग़ज़ल
दश्त-ए-नज्द-ए-यास में दीवानगी हो हर तरफ़
हर तरफ़ महमिल का शक हो पर कहीं महमिल न हो
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
कहीं इस फूटे-मुँह से बेवफ़ा का लफ़्ज़ निकला था
बस अब ता'नों पे ता'ने हैं कि बे-शक बा-वफ़ा तुम हो
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
शाम हुए ख़ुश-बाश यहाँ के मेरे पास आ जाते हैं
मेरे बुझने का नज़्ज़ारा करने आ जाते होंगे