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ग़ज़ल
मुल्तफ़ित होता नहीं जब साक़ी-ए-दौराँ 'हसन'
मय-कदे में बढ़ के ख़ुद साग़र उठा लेते हैं हम
हसन अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
कोई फूल धूप की पत्तियों में हरे रिबन से बँधा हुआ
वो ग़ज़ल का लहजा नया नया न कहा हुआ न सुना हुआ
बशीर बद्र
ग़ज़ल
बना हूँ मैं आज तेरा मेहमाँ कोई अदू को ख़बर न कर दे
उठा के वो तेरी अंजुमन से कहीं मुझे दर-ब-दर न कर दे
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
सुनहरे ख़्वाब आँखों में बुना करते थे हम दोनों
परिंदों की तरह दिन भर उड़ा करते थे हम दोनों