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ग़ज़ल
काली रातों में उजाले से मोहब्बत की है
सुबह की बज़्म में अपना ये शरफ़ क्या कम है
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
सुब्ह तलक अफ़्लाक पे इक कैफ़िय्यत तारी करता हूँ
चाँद को अपनी नज़्म सुना कर शब-बेदारी करता हूँ
औरंग ज़ेब
ग़ज़ल
आज ही क्यूँ न गले मिल लें किसे कल मालूम
हम कहाँ सुबह करें आप कहाँ शाम करें