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ग़ज़ल
मय-ख़ाने में दौर चले मैं इक इक बूँद को तरसा हूँ
साक़ी भी है मेरी नज़र में शीशा क्या पैमाना क्या
अहमद ज़िया
ग़ज़ल
पाएँ क्या दीवाना-ए-मिज़्गाँ बुत-ए-तरसा में लुत्फ़
सोज़न-ए-ईसा में नोक-ए-ख़ाक-ए-सहराई नहीं