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ग़ज़ल
और नहीं तो तर्क-ए-वफ़ा पर ये भी तो हो सकता है
कुछ हम भी शर्मिंदा होंगे कुछ वो भी पछताएगा
सुलतान सुबहानी
ग़ज़ल
ताक़ ओ मेहराब का रोना हो कि दीवार का ग़म
बाम ओ दर पर जो गुज़रती है मकीं जानते हैं
सुल्तान अख़्तर
ग़ज़ल
अहल-ए-वफ़ा से तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ कर लो पर इक बात कहें
कल तुम इन को याद करोगे कल तुम इन्हें पुकारोगे
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
चोरी चोरी हम से तुम आ कर मिले थे जिस जगह
मुद्दतें गुज़रीं पर अब तक वो ठिकाना याद है
हसरत मोहानी
ग़ज़ल
शमीम जयपुरी
ग़ज़ल
हँसी आई थी अपनी बेबसी पर एक दिन मुझ को
अभी तक गूँजता है मेरे अंदर क़हक़हा मेरा