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ग़ज़ल
करते हैं जिस पे ता'न कोई जुर्म तो नहीं
शौक़-ए-फ़ुज़ूल ओ उल्फ़त-ए-नाकाम ही तो है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
तुझे घाटा न होने देंगे कारोबार-ए-उल्फ़त में
हम अपने सर तिरा ऐ दोस्त हर एहसान लेते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
यूँ तो आपस में बिगड़ते हैं ख़फ़ा होते हैं
मिलने वाले कहीं उल्फ़त में जुदा होते हैं
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
भुलाता लाख हूँ लेकिन बराबर याद आते हैं
इलाही तर्क-ए-उल्फ़त पर वो क्यूँकर याद आते हैं
हसरत मोहानी
ग़ज़ल
उल्फ़त के नए दीवानों को किस तरह से कोई समझाए
नज़रों पे लगी है पाबंदी दीदार की बातें करते हैं
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
मुझ को दुश्मन के इरादों पे भी प्यार आता है
तिरी उल्फ़त ने मोहब्बत मिरी आदत कर दी
अहमद नदीम क़ासमी
ग़ज़ल
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
शर्म-ए-रुस्वाई से जा छुपना नक़ाब-ए-ख़ाक में
ख़त्म है उल्फ़त की तुझ पर पर्दा-दारी हाए हाए
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
है अब इस मामूरे में क़हत-ए-ग़म-ए-उल्फ़त 'असद'
हम ने ये माना कि दिल्ली में रहें खावेंगे क्या
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
लौह दिल को ग़म-ए-उल्फ़त को क़लम कहते हैं
कुन है अंदाज़-ए-रक़म हुस्न के अफ़्साने का