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ग़ज़ल
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
जब सुबूही ले के विर्द-ए-मर्हबा करता हूँ मैं
ज़िंदगी को नींद से चौंका दिया करता हूँ मैं
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
सब ने ज़बाँ पे विर्द की सूरत मेरे शे'र सजाए हैं
कान लगा कर सुन ले हर सू गूँज रहा है नाम मिरा
औरंग ज़ेब
ग़ज़ल
साथ हर साँस के आता है ज़बाँ पर तिरा नाम
दिल में जो कुछ हो वही विर्द-ए-ज़बाँ होता है
बिस्मिल सईदी
ग़ज़ल
'सुहैब' अपनी दु'आओं में यही इक विर्द करता है
जो इंसाँ हैं उन्हें इंसानियत से प्यार हो जाए
सुहैब फ़ारूक़ी
ग़ज़ल
विर्द-ए-ज़बाँ है रोज़-ओ-शब इन की सना-ए-हुस्न
शायाँ है जिस क़दर कि ये शाएर ग़ुलू करें