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नज़्म
जी में आता है कि अब अहद-ए-वफ़ा भी तोड़ दूँ
उन को पा सकता हूँ मैं ये आसरा भी तोड़ दूँ
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
उठ रही है कहीं क़ुर्बत से तिरी साँस की आँच
अपनी ख़ुशबू में सुलगती हुई मद्धम मद्धम
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
अख़्तर शीरानी
नज़्म
अता मोमिन को फिर दरगाह-ए-हक़ से होने वाला है
शिकोह-ए-तुर्कमानी ज़ेहन हिन्दी नुत्क़ आराबी
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
बज़्म-ए-परवीं थी निगाहों में कनीज़ों का हुजूम
लैला-ए-नाज़ बरफ़्गंदा-नक़ाब आती थी