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नज़्म
साहिर लुधियानवी
नज़्म
हाँ बे-कल बे-कल रहता है हो पीत में जिस ने जी हारा
पर शाम से ले कर सुब्ह तलक यूँ कौन फिरेगा आवारा
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
बद-हाल घरों की बद-हाली बढ़ते बढ़ते जंजाल बनी
महँगाई बढ़ कर काल बनी सारी बस्ती कंगाल बनी
साहिर लुधियानवी
नज़्म
याँ तक जो हो चुका है सो है वो भी आदमी
कुल आदमी का हुस्न ओ क़ुबह में है याँ ज़ुहूर