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नज़्म
गूँजती है जब फ़ज़ा-ए-दश्त में बाँग-ए-रहील
रेत के टीले पे वो आहू का बे-परवा ख़िराम
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
सुलैमाँ सर-ब-ज़ानू तुर्श-रू ग़म-गीं, परेशाँ-मू
जहाँ-गिरी, जहाँ-बानी फ़क़त तर्रार-ए-आहू
नून मीम राशिद
नज़्म
कभी किया रम इश्क़ से ऐसे जैसे कोई वहशी आहू
और कभी मर-मर के सहर की इस आबाद ख़राबे में