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नज़्म
सुख़न-वर ईज़द अच्छा था कि आदम या फिर अहरीमन
मज़ीद आंकि सुख़न में वक़्त है वक़्त अब से अब यानी
जौन एलिया
नज़्म
गर कभी ख़ल्वत मयस्सर हो तो पूछ अल्लाह से
क़िस्सा-ए-आदम को रंगीं कर गया किस का लहू
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
हम ने ख़ुद शाही को पहनाया है जमहूरी लिबास
जब ज़रा आदम हुआ है ख़ुद-शनास-ओ-ख़ुद-निगर
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
अपनी दुनिया आप पैदा कर अगर ज़िंदों में है
सिर्र-ए-आदम है ज़मीर-ए-कुन-फ़काँ है ज़िंदगी
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
ज़रा नज़्ज़ारा ही ऐ बुल-हवस मक़्सद नहीं उस का
बनाया है किसी ने कुछ समझ कर चश्म-ए-आदम को
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
आज तक सुर्ख़ ओ सियह सदियों के साए के तले
आदम ओ हव्वा की औलाद पे क्या गुज़री है?
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
लिखा था अर्श के पाए पे इक इक्सीर का नुस्ख़ा
छुपाते थे फ़रिश्ते जिस को चश्म-ए-रूह-ए-आदम से
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
दबेगी कब तलक आवाज़-ए-आदम हम भी देखेंगे
रुकेंगे कब तलक जज़्बात-ए-बरहम हम भी देखेंगे