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नज़्म
त'अल्लुक़ बोझ बन जाए तो उस को तोड़ना अच्छा
वो अफ़्साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन
साहिर लुधियानवी
नज़्म
जिस की उल्फ़त में भुला रक्खी थी दुनिया हम ने
दहर को दहर का अफ़्साना बना रक्खा था
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
इस बस्ती के इक कूचे में इक 'इंशा' नाम का दीवाना
इक नार पे जान को हार गया मशहूर है उस का अफ़साना
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
या छोड़ें या तकमील करें ये इश्क़ है या अफ़साना है
ये कैसा गोरख-धंदा है ये कैसा ताना-बाना है
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
हवस बाला-ए-मिम्बर है तुझे रंगीं-बयानी की
नसीहत भी तिरी सूरत है इक अफ़्साना-ख़्वानी की
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
दफ़्न कर सकता हूँ सीने में तुम्हारे राज़ को
और तुम चाहो तो अफ़्साना बना सकता हूँ में
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
ज़ीस्त एहसास भी है शौक़ भी है दर्द भी है
सिर्फ़ अन्फ़ास की तरतीब का अफ़्साना नहीं
साहिर लुधियानवी
नज़्म
कह रही है मेरी ख़ामोशी ही अफ़्साना मिरा
कुंज-ए-ख़ल्वत ख़ाना-ए-क़ुदरत है काशाना मिरा
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
न कोई साँवले महबूब की यादों का अफ़्साना
न ऐवान-ए-ज़मिस्ताँ की तरफ़ जाने की कुछ ख़्वाहिश
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
नज़्म
ये सब 'रेहाना' के मासूम अफ़्साने सुनाते हैं
वो इन खंडरों में इक दिन सूरत-ए-अफ़्साना रहती थी
अख़्तर शीरानी
नज़्म
इक बर्क़-ए-अदा ख़िर्मन-ए-हस्ती पे गिरा कर
नज़रों को मिरी तूर का अफ़्साना बना दे