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नज़्म
'अहिल्याबाई' 'दमन' 'पदमिनी' ओ 'रज़िया' ने
यहीं के पेड़ों की शाख़ों में डाले थे झूले
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
नीम के पेड़ों में झूले हैं जिधर देखो उधर
सावनी गाती हैं सब लड़कियाँ आवाज़ मिला कर हर-सू
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
मैं वो शजर था
कि मेरे साए में बैठने और शाख़ों पे झूलने की हज़ारों जिस्मों को आरज़ू थी