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नज़्म
कौन तुम से छीन सकता है मुझे क्या वहम है
ख़ुद ज़ुलेख़ा से भी तो दामन बचा सकता हूँ मैं
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
ज़िक्र यूसुफ़ का तो क्या कीजे तिरी सरकार में
ख़ुद ज़ुलेख़ा आ के बिकती है तिरे बाज़ार में
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
टूट जाना दर-ए-ज़िंदाँ का तो दुश्वार न था
ख़ुद ज़ुलेख़ा ही रफ़ीक़-ए-मह-ए-कनआँ न बनी
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
मेरी वारफ़तगी-ए-शौक़ मुसल्लम लेकिन
किस की आँखें हैं ज़ुलेख़ा का हसीं ख़्वाब लिए