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नज़्म
मैं आसमान के साथ फैली शाम की नारंजी रौशनी हूँ
या सूरज की आँख में रेंगती सुर्ख़ धार?
ज़ाहिद इमरोज़
नज़्म
अमल से ज़िंदगी बनती है जन्नत भी जहन्नम भी
ये ख़ाकी अपनी फ़ितरत में न नूरी है न नारी है