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नज़्म
सो मैं ने साहत-ए-दीरोज़ में डाला है अब डेरा
मिरे दीरोज़ में ज़हर-ए-हलाहल तेग़-ए-क़ातिल है
जौन एलिया
नज़्म
ख़ुम-ए-साक़ी में जुज़ ज़हर-ए-हलाहल कुछ नहीं बाक़ी
जो हो महफ़िल में इस इकराम के क़ाबिल ठहर जाए
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
जो इल्म मर्दों के लिए समझा गया आब-ए-हयात
ठहरा तुम्हारे हक़ में वो ज़हर-ए-हलाहिल सर-बसर
अल्ताफ़ हुसैन हाली
नज़्म
क़ाज़ी-ए-शहर का माथा चूमो
जिस के क़लम में ज़हर-ए-हलाहल जिस के सुख़न में लहन-ए-हलाहल
मुस्तफ़ा ज़ैदी
नज़्म
तुम आब-ए-बक़ा के शैदाई मैं ज़हर-ए-हलाहिल का जोया
मैं रंज-ओ-सऊबत का आदी तुम ऐश-ओ-तरब के दिल-दादा
अमजद नजमी
नज़्म
लफ़्ज़ों के तीरों पर ‘अय्यारियों का हलाहल चढ़ाए चले जा रहे हैं
किसी को किसी पर भरोसा नहीं है
डॉ. अब्दुल्लाह
नज़्म
मेरा इल्हाम तिरा ज़ेहन-ए-रसा भी पत्थर
इस ज़माने में तो हर फ़न का निशाँ पत्थर है