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नज़्म
जिस पर सात बरस लगते हैं वो रस्ता हमवार भी है
उस रस्ते के दोनों जानिब शहर भी है बाज़ार भी है
साक़ी फ़ारुक़ी
नज़्म
कुछ ख़्वाब हैं परवर्दा-ए-अनवार मगर उन की सहर गुम
जिस आग से उठता है मोहब्बत का ख़मीर उस के शरर गुम