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नज़्म
अलग रह कर ख़याल-ए-ज़हमत ओ एहसास-ए-राहत से
लगे हैं अपनी अपनी फ़िक्र में बा-ख़ातिर-ए-यकसू
अहमक़ फफूँदवी
नज़्म
वो सूद-ए-हाल से यकसर ज़ियाँ-काराना गुज़रा है
तलब थी ख़ून की क़य की उसे और बे-निहायत थी
जौन एलिया
नज़्म
जो बात थी इन के जी में थी जो भेद था यकसर अन-जाना
इस बस्ती के इक कूचे में इक 'इंशा' नाम का दीवाना
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
मुझे तुम अपनी बाँहों में जकड़ लो और मैं तुम को
किसी भी दिल-कुशा जज़्बे से यकसर ना-शनासाना
जौन एलिया
नज़्म
मैं सारे ज़माने से यकसर जुदा हूँ
मुझे ज़ेब देता है मैं अपनी दीवार में इस तरह से मुक़य्यद रहूँ
सोहैब मुग़ीरा सिद्दीक़ी
नज़्म
इस खेल में हर बात अपनी कहाँ जीत अपनी कहाँ मात अपनी कहाँ
या खेल से यकसर उठ जाओ या जाती बाज़ी जाने दो
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
ज़िंदगी को इस की यकसर तल्ख़ कर देती है तू
काँप जाता है जिगर वो चुटकियाँ लेती है तू