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नज़्म
जी में आता है कि अब अहद-ए-वफ़ा भी तोड़ दूँ
उन को पा सकता हूँ मैं ये आसरा भी तोड़ दूँ
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
जिस्म की लज़्ज़तों नफ़्स की शहवतों में भटकते रहें
सारे बे-आसरा ग़म-गज़ीदों को इबरत का ज़रिया समझ कर
आरिफ़ अख़्तर नक़वी
नज़्म
कुछ बे-फ़िक्र हक़ीक़त से टहल रहे होंगे
कुछ बूढे अश्क नए जन्मों को आसरा दे रहे होंगे
दर्शिका वसानी
नज़्म
तुम्हें है फ़िक्र कि जीने का आसरा हो कोई
मैं चाहता हूँ मिटा दूँ किसी तरह ख़ुद को