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नज़्म
ख़ुद को बहलाना था आख़िर ख़ुद को बहलाता रहा
मैं ब-ईं सोज़-ए-दरूँ हँसता रहा गाता रहा
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
रुख़्सत ऐ दिल्ली तिरी महफ़िल से अब जाता हूँ मैं
नौहागर जाता हूँ मैं नाला-ब-लब जाता हूँ मैं
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
नहीं मालूम 'ज़रयून' अब तुम्हारी उम्र क्या होगी
वो किन ख़्वाबों से जाने आश्ना ना-आश्ना होगी