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नज़्म
ज़मीं ने फिर नए सर से नया रख़्त-ए-सफ़र बाँधा
ख़ुशी में हर क़दम पर आफ़्ताब आँखें बिछाता है
अली सरदार जाफ़री
नज़्म
तुम ने जितने भी बदले थे अपने आप से और फिर अपने जैसों से
इक इक कर के पूरे दिल से चुका भी लिए हैं
सरमद सहबाई
नज़्म
बस्ती में ख़ौफ़ उतरता है गलियों में हू फैलाता हूँ
पीपल के नीचे शाम ढले अपना दरबार लगाता हूँ