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नज़्म
क़त्अ होती ही नहीं तारीकी-ए-हिरमाँ से राह
फ़ाक़ा-कश बच्चों के धुँदले आँसुओं पर है निगाह
जोश मलीहाबादी
नज़्म
अपनी अपनी राह चले फिर आख़िर शब के मैदाँ में
अपने अपने घर को जाते दो हैराँ बच्चों की तरह
मुनीर नियाज़ी
नज़्म
सुनो ये ग़ौर से माएँ बिलक रही हैं कहीं
ये देखो बच्चों की आँखें छलक रही हैं कहीं