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नज़्म
बस्ती के सजीले शोख़ जवाँ बन बन के सिपाही जाने लगे
जिस राह से कम ही लौट सके उस राह पे राही जाने लगे
साहिर लुधियानवी
नज़्म
जिन की निगाहों ने की तर्बियत-ए-शर्क़-ओ-ग़र्ब
ज़ुल्मत-ए-यूरोप में थी जिन की ख़िरद-राह-बीं
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मोहब्बत ही वो मंज़िल है कि मंज़िल भी है सहरा भी
जरस भी कारवाँ भी राहबर भी राहज़न भी है
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
तुम न आए थे तो हर इक चीज़ वही थी कि जो है
आसमाँ हद्द-ए-नज़र राहगुज़र राहगुज़र शीशा-ए-मय शीशा-ए-मय
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
और अब ये राह-गुज़र भी है दिल-फ़रेब ओ हसीं
है इस की ख़ाक में कैफ़-ए-शराब-ओ-शेर मकीं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
हाए उन को भी ख़बर क्या कि वो इक ज़ख़्म-नसीब
ज़िंदगी के लिए निकला था जो राही बन कर