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नज़्म
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा
गर तो है लक्खी बंजारा और खेप भी तेरी भारी है
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
मिरी तख़्लीक़ की मुझ को जहाँ की पासबानी दी
समुंदर मोतियों मूँगों से कानें लाल-ओ-गौहर से
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
इसी हिंडोले में 'विद्यापति' का कंठ खुला
इसी ज़मीन के थे लाल 'मीर' ओ 'ग़ालिब' भी
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
मैं वो इक लाल हूँ जो बिक गया बाज़ारों में
फिर कोई पूछने मुझ को न यमन से आया
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
नज़्म
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
क्या क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें
बदनों में खब रहे हैं ख़ूबों के लाल जोड़े