aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "लौस-ए-तलब"
दम-ए-तक़रीर थी मुस्लिम की सदाक़त बेबाकअदल उस का था क़वी लौस-ए-मराआत से पाक
तिश्नगी वज्ह-ए-तलबज़ौक़-ए-तलब हुस्न-ए-तलब
ज़ौक़-ए-तलब के भी हैंमेआर अजब
शौक़-ए-तलब मेंआप सुलगने लगता है
हमारे हाथ में बस कासा-ए-तलब ही रहा
तलब-ओ-तर्क-ए-तलब सिलसिला-ए-बे-पायाँमर्ग ही ज़ीस्त का उन्वान है हर ख़ून-शुदा ख़्वाहिश में
जिस के मुक़द्दर में रहीसुब्ह-ए-तलब से तीरगी
सन्नाटे के रंगों जैसा आँगन हैवही ख़्वाब-ए-तलब है
किस ज़मीं से मिरा त'अल्लुक़ हैकौन हुस्न-ए-तलब बताएगा
जिन की राह-ए-तलब से हमारे क़दममुख़्तसर कर चले दर्द के फ़ासले
शानों पर इक बोझ को लादेराह-ए-तलब में आगे आगे
अब तर्क दुआ की मंज़िलें हैंदामान-ए-तलब सिमट चुका है
फिर मिरी सम्त बढ़ने लगातेरे मासूम ख़्वाबों का दस्त-ए-तलब
सौत-ओ-सदा की लहरों में भीमौज-ए-तलब की
कहाँ ये क़तरा मिसाल-ए-दरियाकहाँ मिरी मंज़िल-ए-तलब है
दीवार-ए-गिर्या से ले करचश्म-ए-तलब के पार तलक
ख़ुद-साख़्ता पैकराँ को छू लेये ज़ख़्म-ए-तलब ये ना-मुरादी
नशात-ए-तलब ही की सौग़ात कोईन उन ख़ाली हाथों में है हाथ कोई
अपना एहसास दिलाती थी मुझेबे-कली हस्ब-ए-तलब उस ने न मिल सकने की
दस्त-ए-तलब में अपनी ख़ाकिस्तर भी अन्क़ा होइसे पाएँ तो सारे महल
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