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नज़्म
वासिल-ए-मंज़िल-ए-मक़्सूद न होते क्यूँकर
फ़रस-ए-इश्क़ पे असवार गुरु-नानक थे
श्याम सुंदर लाल बर्क़
नज़्म
तो वासिल-इब्न-ए-अता की बातें जो रज़्म-गाह-ए-कलाम-अंदर
चुनी गई थीं समाअ'तों ने कभी सुनी हैं
इलियास बाबर आवान
नज़्म
इसी से फ़ैज़ पाते हैं ज़माने के सभी वासिल
इसी से फ़ैज़ पाते हैं ज़माने के सभी वासिल
प्रेम पाल अश्क
नज़्म
रेल की पटरियों पर उदासी की गूँजें बदन की सुरंगों से यक-लख़्त बाहर निकलने लगीं
विसिल बजने लगी