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नज़्म
मियान-ए-शाख़-साराँ सोहबत-ए-मुर्ग़-ए-चमन कब तक
तिरे बाज़ू में है परवाज़-ए-शाहीन-ए-क़हस्तानी
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
सोहबत-ए-हूर-ओ-मलक ऐ 'अश्क' ख़ुश आए न क्यों
मिलते-जुलते थे फ़रिश्तों से ख़िसाल-ए-'आरज़ू'
मासूम शर्क़ी
नज़्म
ज़िंदगी की ओज-गाहों से उतर आते हैं हम
सोहबत-ए-मादर में तिफ़्ल-ए-सादा रह जाते हैं हम
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
हुजूम-ए-दोस्ताँ के सुरूर में बचकाना काएनात बनाती हूँ
कभी आईना-रू नज़र आती हूँ
मर्यम तस्लीम कियानी
नज़्म
कुछ ऐसे रूप में आया है फ़ित्ना-ए-हाज़िर
तमीज़-ए-दोस्ताँ ओ दुश्मनाँ भी मुश्किल है