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नज़्म
ऐ इश्क़ न छेड़ आ आ के हमें हम भूले हुओं को याद न कर
पहले ही बहुत नाशाद हैं हम तू और हमें नाशाद न कर
अख़्तर शीरानी
नज़्म
फिर कहेंगे कि हँसी में भी ख़फ़ा होती हैं
अब तो 'रूही' की नमाज़ें भी क़ज़ा होती हैं
कफ़ील आज़र अमरोहवी
नज़्म
एक रंगीन ओ हसीं ख़्वाब थी दुनिया मेरी
जन्नत-ए-शौक़ थी बेगाना-ए-आफ़ात-ए-सुमूम
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
न तूफ़ाँ रोक सकते हैं न आँधी रोक सकती है
मगर फिर भी मैं उस क़स्र-ए-हसीं तक जा नहीं सकता
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
डस लेगी जान ओ दिल को कुछ ऐसे कि जान ओ दिल
ता-उम्र फिर न कोई हसीं ख़्वाब बुन सकें