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नज़्म
अल्फ़ाज़ की इफ़रात होती है
मगर फिर भी, बुलंद आवाज़ पढ़िए तो बहुत ही मो'तबर लगती हैं बातें
गुलज़ार
नज़्म
कहते थे कि पिन्हाँ है तसव्वुफ़ में शरीअत
जिस तरह कि अल्फ़ाज़ में मुज़्मर हों मआनी
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
हों जो अल्फ़ाज़ के हाथों में हैं संग-ए-दुश्नाम
तंज़ छलकाए तो छलकाया करे ज़हर के जाम
अली सरदार जाफ़री
नज़्म
वो क़ल्ब और ज़ेहन का तसादुम जो गुफ़्तुगू में रवाँ-दवाँ था
वो उस के अल्फ़ाज़ की रवानी
तारिक़ क़मर
नज़्म
लेकिन ऐ इल्म-ओ-जसारत के दरख़्शाँ आफ़्ताब
कुछ ब-अल्फ़ाज़-ए-दिगर भी तुझ से करना है ख़िताब
जोश मलीहाबादी
नज़्म
आनंद नारायण मुल्ला
नज़्म
न ज़ाहिर हो तुम्हारी कश्मकश का राज़ नज़रों से
तुम्हें भी कोई उलझन रोकती है पेश-क़दमी से
साहिर लुधियानवी
नज़्म
जिस की उल्फ़त में भुला रक्खी थी दुनिया हम ने
दहर को दहर का अफ़्साना बना रक्खा था
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
लबों पे अल्फ़ाज़ हैं कि प्यासों का क़ाफ़िला है
नमी है ये या फ़ुरात आँखों से बह रही है