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नज़्म
ऐ गुल-ए-रंगीं-क़बा ऐ ग़ाज़ा-ए-रू-ए-बहार
तू है ख़ुद अपने जमाल-ए-हुस्न का आईना-दार
मुईन अहसन जज़्बी
नज़्म
आ कि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझ से
जिस ने इस दिल को परी-ख़ाना बना रक्खा था
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
तुम्हें मालूम है वो बे-ख़ुदी का कैसा आलम था
मिरे होंटों में जलती पटरियाँ भी मुस्कुराती थीं