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नज़्म
गर फ़िक्र-ए-ज़ख्म की तो ख़ता-वार हैं कि हम
क्यूँ महव-ए-मद्ह-ए-खूबी-ए-तेग़-ए-अदा न थे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
हम सब से हर हाल में लेकिन यूँही हाथ पसार मिले
सिर्फ़ उन की ख़ूबी पे नज़र की इस आबाद ख़राबे में
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
अल्ताफ़ जिन्हों पर हैं उन के सो ख़ूबी हासिल है उन को
हर आन 'नज़ीर' अब याँ तुम भी तो बाबा नानक शाह कहो
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
बनी है गो कि नादिर ख़ूब हर सरदार की राखी
सलोनों में अजब रंगीं है उस दिलदार की राखी
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
तरक़्क़ी की खुली हैं शाहराहें दहर में हर सू
नज़र आता है तहज़ीब-ओ-तमद्दुन से जहाँ ममलू
अहमक़ फफूँदवी
नज़्म
ब-हर-उनवाँ यही इक पेशवा-ए-हुस्न-ओ-ख़ूबी है
ग़लत है एशिया में मोरिद-ए-इल्ज़ाम है उर्दू
माजिद-अल-बाक़री
नज़्म
सब चूमने वाले गिर्द दुखड़े नज़ारा करते हँसी-ख़ुशी
महबूब नशे की ख़ूबी में फिर आशिक़ ऊपर घड़ी घड़ी