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नज़्म
इसी बहते हुए दरिया में अपने ख़्वाब का सोना बिखरना है
हमारे जिस्म का सौदा इसी मिट्टी से होना है
फ़ैसल रेहान
नज़्म
ढल चुकी रात बिखरने लगा तारों का ग़ुबार
लड़खड़ाने लगे ऐवानों में ख़्वाबीदा चराग़
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
अमजद इस्लाम अमजद
नज़्म
क्या क्या मुफ़्लिसी की कहूँ ख़्वारी फकड़ियाँ
झाड़ू बग़ैर घर में बिखरती हैं झकड़ियाँ