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नज़्म
न देखे हैं बुरे इस ने न परखे हैं भले इस ने
शिकंजों में जकड़ कर घूँट डाले हैं गले इस ने
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
हम सब कुछ कर सकते हैं मगर ये सोच के फिर रह जाते हैं
तुम लाख बुरे हो अपने हो अपनों से बग़ावत कौन करे
अबुल फ़ितरत मीर ज़ैदी
नज़्म
नज़र उठाओ सफ़ीर-ए-लैला बुरे तमाशों का शहर देखो
ये मेरा क़र्या ये वहशतों का अमीन क़र्या
अली अकबर नातिक़
नज़्म
अच्छे और बुरे की सोहबत अपना रंग दिखाती है
खोटे और खरे की तुम को हो पहचान ज़रूरी है