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नज़्म
ये तिरी आँखों की बे-ज़ारी ये लहजे की थकन
कितने अंदेशों की हामिल हैं ये दिल की धड़कनें
अहमद फ़राज़
नज़्म
दोस्त कहते हैं तिरे दश्त-ए-वफ़ा में कैसे
इतनी ख़ुशबू है महकता हो गुलिस्ताँ जैसे